21 नवंबर, 2010

शहीदों के जिस्म पर

शहीदों के जिस्म पर लगेंगे कब तलक जख्म गहरे,
कब तक बैठे रहेंगे निर्वाक लगाए सोच पर पेहरे,
निर्दोश लहू आखिर कब तक शहीद कहलाएगा,
पाक की सरजमीं पर तिरंगा कब लहराएगा !!

आज़ाद घूम रहे दुश्मन दोस्तों के ही भेस में,
मुल्ला-उमर,लादेन जैसे पनप रहे आज के परिवेश में,
पह्चान ही गये हैं जब हम अपने दुश्मनों को तो,
विलम्ब क्यूं लग रहा समर बिगुल के आदेश में !

रावलपिन्डी में अब लहरा जाये पर्चम हिन्दुस्तान का,
नाम मिटा दो इस धरती से पापी पाकिस्तान का,
ईन्ट से ईन्ट बजा दो आज़ाद हिन्द के रखवालों,
है यही ऐलान आज हिन्द के हर नौजवान का !

निकाल लो उन आँखों को जो हमको घूर रहीं,
रावलपिन्डी और कराची अब नजरों से दूर नहीं,
भडक उट्ठी है ज्वाला अब खैर नहीं अतंकवाद की,
हम लें किसी का सहारा इतने हम मज़बूर नहीं !

वतन की आन पर प्रहरी मौत की नींद सो जाता है,
बरूदी होली खेल कर तिरंगे को गगन तक उठाता है,
अफ़सोस मगर रजनेताओं का चरित्र कितना बोना हो गया,
शहीदों के कफ़न से भी जहाँ का मन्त्रालय रिशवत खा जाता है !

या तो कह दो कि बाजुओं में हमारी दम नहीं,
वर्ना बता दो समुचे विश्व को कि हम किसी से कम नहीं,
होना है तो हो जाए एक बार युद्ध आर-पार का,
छीन लो उस धरती को जो ॒क्षॆत्र है हमारे अधिकार का !
****धर्मेन्द्र

हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता

: हिन्दू कभी भी आतंकवादी नहीं हो सकता क्योंकि जिस हिन्दू दर्शन में प्रकृति की पूजा करना, चींटी को आटा खिलाना और नाग को भी दूध पिलाना शामिल है वहां पर पला और बढ़ा कोई व्यक्ति क्या इस आतंकवाद की राह पर जा सकता है?

भारत में जब कभी तुष्टीकरण के खिलाफ कोई आवाज उठती है तो उसे साम्प्रदायिक कहा जाता है, जब कभी देश के गौरवशाली संघर्ष पूर्ण इतिहास को याद दिलाने का प्रयास किया जाता है तो उसे भगवाकरण करने की साजिश बताया जाता है, आतंकवाद के मुद्दे पर जब देश को जाग्रत करने का अभियान चलाया जाता है तो हिन्दू आतंकवाद के नाम पर नयी पैंतरेबाजी शुरू हो जाती है।

आपको ध्यान रहे कि नये-नये शिगूफे छोड़ने में माहिर ये वही लोग हैं जो इस देश के इतिहास में गुरु तेग बहादुर और चन्द्रशेखर आजाद को भी आतंकवादी पढ़ाये जाने वाले पाठयक्रम की वकालत करते हैं, इनको रात-दिन केवल एक ही खतरा सताता रहता है कि कहीं यह देश आत्म विस्मृति से जागकर खड़ा हो गया तो इनकी दुकान में ताला लग जायेगा।वस्तुत: आज कल हिन्दू आतंकवाद वास्तविकता पर पर्दा डालने वाली शक्तियों के द्वारा हिन्दुत्व प्रेमियों के लिए एक विशेष गाली के रूप में प्रयोग किया गया एक नया ब्राण्ड है।

वैसे भी राजनीति में हर आम चुनाव आते ही कुछ लोगों और दलों को विशेष प्रकार के नवीन ब्राण्ड की खास जरूरत होती है। कभी गरीबी हटाओ का नारा दिया गया, कभी राष्ट्र की एकता अखण्डता का नारा दिया गया, कभी साम्प्रदायिक ताकतों को मिटाने का नारा दिया गया। इसमें से कौन से नारे के अनुरूप आचरण किया गया तथा देश का कितना भला हुआ यह तो इतिहास के पन्ने ही जानते हैं, फिर इस नये ब्राण्ड से देश का कौन सा भला होगा यह तो समय बतायेगा। आम चुनाव के पहले अपनी-अपनी पीठ थपथपाने वालों को ध्यान रखना चाहिए कि कहीं वास्तविक अपराधी न छूट जाए और हम अपनी खुन्नस ही निकालते रहें।

वैसे तो न्याय का एक नैसर्गिक नियम है कि एक भी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए भले ही अपराधी क्यों न छूट जाए। सरकारों के तीन ही मुख्य काम है कानून बनाना, कानून का पालन कराना और न्याय दिलाना। देश की जनता हर आम चुनाव में इन तीनों बातों का आकलन जरूर करती है, न्याय और अन्याय की भाषा को समझती है, धर्म और अधर्म की राह पर चलने वालों को पहचानती है तथा अत्याचारी और विद्वेष पूर्ण ही नहीं मनगढ़ंत प्रलापों को भी बखूबी समझती है।

वैसे तो हिन्दुत्व पर आक्रमण कोई नयी बात नहीं है। चूंकि हिन्दुत्व ही भारत की पहचान है इसीलिये सन् 637 में पहला जेहादी हमला भारत पर हुआ तथा 570 साल के संघर्ष के बाद सन् 1207 में दिल्ली में मुगल सत्ता स्थापित हो गयी किन्तु 500 साल भी टिक नहीं पायी। फिर भी न जाने कितने मंदिर टूटे, पृथ्वीराज चौहान की आंखे निकाल ली गयी, भाई मतिदास का सिर आरे से चिरवाया गया, भाई सतीदास के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये, भाई दयालदास को खौलते तेल की कढ़ाई में डाल दिया गया, गुरू तेगबहादुर का सिर कलम कर दिया गया, गुरुपुत्रों को जिन्दा दीवालों में चुनवाया गया, वीर हकीकत राय का बलिदान हुआ, बन्दा बैरागी की बोटी-बोटी नुचवायी गयी लेकिन जेहाद हारा और भारत विजयी हुआ।

भारत में अगर हिन्दुत्व को अपमानित करने के प्रयास होते हैं तो किसी को आश्चर्य नहीं होता है। कश्मीर से तीन लाख हिन्दू निकाले जाते हैं और देश के कुछ नेता कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं समझते। दुनिया में बसे हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों के विरोध में बोलने के लिये जिनके पास दो शब्द भी नहीं है, उन्हें अरब देशों पर बहुत चिंता होने लगती है। उन्हीं को हिन्दू आंतकवाद भी जहरीले नाग की तरह दिखता है और पुलिस द्वारा जब आजमगढ़ के किसी आतंकवादी को पकड़ा जाता है तो वे गहरा दु:ख व्यक्त करते हैं।

दूसरी ओर वहीं पर इकट्ठा होकर कुछ तथाकथित देशभक्त आधुनिक भारत में 565 रियासतों के एकीकरण के अग्रदूत लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को आतंकवादी कहने की हिम्मत जुटा लेते हैं और वही नेता सुनते रहते हैं, एक शब्द भी बोलने की आवश्यकता नहीं समझते। ऐसे ही लोग जामिया नगर मुठभेड़ में शहीद पुलिस अधिकारी की वर्दी पर कीचड़ उछालने से नहीं हिचकते।

वस्तुत: हिन्दू कभी भी आतंकवादी नहीं हो सकता क्योंकि जिस हिन्दू दर्शन में प्रकृति की पूजा करना, चींटी को आटा खिलाना और नाग को भी दूध पिलाना शामिल है वहां पर पला और बढ़ा कोई व्यक्ति क्या इस आतंकवाद की राह पर जा सकता है? यह एक गहन विचार का प्रश्न है। दुनिया के देशों में भारत ही आतंकवाद के दंश को झेलने वाला प्रमुख देश है। हमारा दुर्भाग्य है कि इस देश के प्रधानमंत्री केन्द्र सरकार के समर्थक या विरोधी के आधार पर अपनी जुबान खोलते हैं, न कि देश की इज्जत बचाने के लिये।

22 नवम्बर 2008 को राज्य पुलिस प्रमुखों की बैठक में बोलते हुये उन्होंने कहा कि देश के लिये वामपंथी आतंकवाद यानी नकसलवाद सबसे बड़ी समस्या है। यह सत्य उनके मुंह से तब निकला जब वामपंथी परमाणु करार के कारण उनकी सरकार से अलग हो गये। जब पश्चिम बंगाल के चुनाव आये तो प्रधानमंत्री जी को समझ में आया कि वामपंथी हमारे वहां पर दुश्मन हैं, चार साल तक गलबहियां डालने से पहले देश के हित में अगर विचार किया होता तो वामपंथी और मुस्लिम लीग केन्द्रीय सत्ता का हिस्सा कभी भी नहीं बन सकते थे और न ही प्रख्यात योग गुरु रामदेव के बारे में अनर्गल आरोप वामपंथी वृंदा करात के मुंह से निकल पाते।

वास्तव में इस देश को हिन्दू आतंकवाद से नहीं, खतरा तो उन शक्तियों से है जो कभी मानवाधिकारवादी चोला पहनकर, कभी लेखक या पत्रकार बनकर, कभी धर्मनिरपेक्ष नेता बनने का बहाना बनाकर देश विरोधी तत्वों की पैरवी करते हैं। चंद वोटों का लालच या चंद नोटों की चाहत उनकी कार्यशैली का हिस्सा बन चुकी है। देश में संसाधनों पर पहला हक किसी गरीब का नहीं, मुसलमानों का है, देश के मुखिया के मुंह से यह शब्दावली उसी कार्यशैली का हिस्सा है।

इस देश में दीपावली के ठीक एक दिन पहले शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती को गिरफ्तार किया जा सकता है लेकिन न्यायालय की अवमानना करने पर इमाम बुखारी को चेतावनी भी नहीं दी जा सकती। संत आशाराम बापू के अपमान का कुचक्र रचा जा सकता है लेकिन होली के एक दिन पूर्व कोयम्बटूर बम विस्फोट में 58 निर्दोषों की हत्या के मुख्य आरोपी अब्दुल नसीर मदनी को बाइज्जत रिहा कर दिया जाता है।

संसद हमले के आरोप में न्यायालय से सजा प्राप्त अफजल को फांसी से बचाने के प्रयास करने वाले लोग अमरनाथ श्राइन बोर्ड को किराये पर दी गयी भूमि हड़प सकते हैं, वीर सावरकर की सम्मान पट्टिका को उखाड़ देते हैं, आतंकवादियों की पैरवी करने की घोषणा करने वाले जामिया विश्वविद्यालय के कुलपति के विरुध्द एक भी शब्द न बोलने की हिम्मत जुटा सकने वाले लोग दीपावली के दिन भी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर का खाना छीन सकते हैं। कितना आश्चर्य होता है कि इन्हीं के एक मित्र और सरकार के सहयोगी राजठाकरे सौ खून माफी का पुरस्कार महाराष्ट्र सरकार से प्राप्त करके नफरत के बीज बो रहे हैं, वह भी इन्हें दिखायी नहीं देता। इन्हें न तो असम के विस्फोट दिखते है और न ही बांग्लादेशी घुसपैठिये।

इन्हें महाराष्ट्र में मालेगांव विस्फोट को आरोपियों पर मकोका की आवश्यकता दिखायी देती है लेकिन उत्तर प्रदेश में उप्रकोका तथा गुजरात में गुजकोका की आवश्यकता नहीं दिखायी देती। गृहमंत्री को पोटा जैसा कानून पसंद नहीं, ऐसा बयान जारी होता है। पसंद है हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों पर किसी भी तरह का लांछन या आरोप। इसी आरोप के तहत गांधी हत्या में संघ का नाम घसीटा था। इसी तरह देश में आपात स्थिति और 1975 में संघ पर प्रतिबंध लगाया गया था। लेकिन जिन संगठनों पर ब्रिटेन सरकार और बीबीसी रेडियो तक कोई सन्देह नहीं कर सकता उन्हें कटघरे में खड़ा न करने वाले इस देश को कौन सा संदेश देना चाहते हैं?

विदेशी पैसे के बल पर चलने वाले कुछ इलेक्ट्रानिक चैनलों और समाचार पत्रों को उड़ीसा दिखाई देता है लेकिन संत लक्ष्मणानन्द सरस्वती को छोड़कर। गुजरात भी दिखाई देता है लेकिन गोधरा को छोड़कर। देश भी दिखाई देता है लेकिन हिन्दुओं को छोड़कर। अब तो देश की जनता को सोचना ही पड़ेगा। महात्मा गांधी ने कहा था कि असत्य, अन्याय और दमन के सामने झुकना कायरता है तथा अपराध करने वाले के साथ ही अपराध और अन्याय सहने वाला भी उसी पाप का भागी है। आज की आवश्यकता है कि हम कम से कम उसके भागीदार तो न बनें।

हिन्दू पाखंड से लड़ेंगे तो धर्म बचेगा

हिन्दू पाखंड से लड़ेंगे तो धर्म बचेगा
उड़ीसा में जो कुछ भी ईसाई चर्च और ननों पर आक्रमण के रूप में दिख रहा है उससे वे सामान्य हिन्दू भी दुखी हैं जो अन्यथा ईसाइयों के छल, बल और कपट से किए जाने वाले धर्मान्तरण के विरोध में तीक्ष्ण मत प्रकट करते हैं।
हिन्दू धर्म विश्व में सर्वाधिक शालीन, भद्र, सभ्य और ‘ वसुधैव कुटुम्बकम् ’ की भावना प्रसारित करने वाली जीवन पद्धति है जो किसी संप्रदाय या पंथ से व्याख्यायित नहीं हो सकती। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने हिन्दुत्व संबंधी फैसले में स्पष्ट कहा कि हिन्दू धर्म सम्प्रदाय नहीं बल्कि संपूर्ण वैश्विक दृष्टि रखने वाली जीवन पद्धति है। इस जीवन पद्धति के आधुनिक उद्गाता महापुरुषों में स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, शाहू जी महाराज, लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक, श्री अरविंद, महात्मा गांधी, डॉ. हेडगेवार, वीर सावरकर प्रभृति जननायक हुए। उन्होंने उस समय हिन्दू समाज की दुर्बलताओं, असंगठन और पाखण्ड पर चोट की। तेजस्वी-ओजस्वी वीर एवं पराक्रमी हिन्दू को खड़ा करने की कोशिश की।
उन महापुरुषों को आज के नेताओं से छोटा या कम बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता। महात्मा गांधी ने दुनिया में एक आदर्श हिन्दू का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि आज सारी दुनिया भारत को महात्मा गांधी के देश के नाम से जानती है। डॉ. हेडगेवार ने भारत के हज़ारों साल के इतिहास में पहली बार क्रांतिधर्मा समाज परिवर्तन की ऐसी प्रचारक परम्परा प्रारम्भ की जिसने देश के मूल चरित्र और स्वभाव की रक्षा हेतु अभूतपूर्व सैन्य भावयुक्त नागरिक शक्ति खड़ी कर दी। इनमें से किसी भी महानायक ने नकारात्मक पद्धति को नहीं चुना। सकारात्मक विचार ही उनकी शक्ति का आधार रहा।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने पाखंड खंडनी पताका के माध्यम से हिन्दू समाज को शिथिलता से मुक्त किया और ईसाई पादरियों के पापमय, झूठे प्रचार के आघातों से हिन्दू समाज को बचाते हुए शुद्धि आंदोलन की नींव डाली। जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू समाज की रक्षा हो पाई। स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ ने विश्वभर में हिन्दू धर्म के श्रेष्ठतम स्वरूप का परिचय देते हुए ईसाई और मुस्लिम आक्रमणों के कारण हतबल दिख रहे हिन्दू समाज में नूतन प्राण का संचार करते हुए समाज का सामूहिक मनोबल बढ़ाया।
विडंबना यह है कि आज हिन्दू समाज अपनी ही दुर्बलताओं और आपसी फूट का शिकार होकर कुंठा और क्रोध की अभिव्यक्ति कर रहा है। उस पर चारों ओर से हमले आज भी जारी है। जिस भारत को अपने हिन्दू होने पर सर्वाधिक गर्व करना चाहिए था, उस भारत को अपने हिन्दुत्व पर शर्म करने के पाठ सिखाए जाने लगे तो इसका सामाजिक तनाव और राजनीतिक ध्रुवीकरण के रूप में जो परिणाम होना था वह हुआ ही।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दू आग्रह और हिन्दू नवोन्मेष को भारतीय धर्म की सात्विक और सकारात्मक धारा के रूप में मान्य करने के बजाय उसे दो बार प्रतिबंधित किया गया। सेकुलर प्रहार से हिन्दू स्वर साइबेरिया और गुलाग जैसे श्रम शिविरों की स्थिति में धकेल दिया गया है। किसी भी तथाकथित मुख्य धारा के समाचार-पत्र, चैनल या मंच पर उस हिन्दू का स्वर वर्जित और प्रतिबंधित है, जिस हिन्दू स्वर ने केन्द्रित सत्ता में भी आने का जनादेश, का ही सही किंतु प्राप्त कर दिखाया था और जो आज देश के विभिन्न प्रांतों किसी भी सेकुलर राजनीतिक व्यवस्था से ज़्यादा प्रभावी एवं महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त कर चुके हैं।
राजनीति में यह वैचारिक अस्पृश्यता और घृणा जनित आक्रमण हिन्दू को एवं प्रतिशोधक आक्रामकता के तेवर अपनाने की ओर धकेल रहा है। यह न देश के लिए ठीक है न उन सेकुलरों के लिए जिनका स्वर जिहादी घृणा का स्वरूप प्रकट करता है और असंदिग्ध रूप से वह हिन्दू समाज के व्यापक हितों को तो पूरा ही नहीं करता।
हिन्दू बहुसंख्यक देश में 5 लाख हिन्दुओं का शरणार्थी के रूप में निर्वासन पूरे भारत के लिए कलंक और शर्म की बात है। हिन्दुओं का मतांतरण बहुत ही तीव्र गति से जारी है और इसके लिए अमेरिका तथा यूरोप से प्रतिवर्ष अरबों डॉलर चर्च संगठनों को दिए जा रहे हैं। केन्द्रीय सत्ता में एक ऐसे सेक्युलर राजनीतिक गठबंधन का शासन है जो हिन्दू संवेदनाओं पर प्रहार करना अपने सेक्युलर पंथ की पहली पहचान मानता है। इसके राज्य में हिन्दुओं पर हमले बढ़े हैं। हिन्दू संवेदनाओं का अपमान सामान्य राजकीय पद्धति का अंग मान लिया गया है। रामसेतु तोड़ने और राम के अस्तित्व को नकारने जैसी घटनाओं, मज़हब के आधार पर मुस्लिम आरक्षण तथा आतंकवाद के विरूद्ध मुहिम में मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण ढिलाई जैसे घटनाक्रमों ने हिन्दू मन को बेहद आहत किया।
यदि वास्तव में हिन्दू संगठनों और राजनीतिक हिन्दू नेताओं की बेहतर साख होती तो हिन्दुओं का क्रोध हिंसक रूप नहीं लेता जैसा कि उड़ीसा और मंगलौर में दिखा। हिन्दुओं के इस रूप की निन्दा कर सेक्युलर भाषा बोलने से भी समाधान नहीं निकलेगा। आज हिन्दुओं को चारों ओर से घेर दिया गया है। हिन्दू संत की हत्या पर न अमेरिका में आवाज उठती है न वेटिकन में और दिल्ली के राजनेता वोट बैंक के भय से सन्नाटा ओढ़े रहते हैं। क्या कोई बता सकता है कि देश भर में हिन्दुओं के कितने विद्यालय कंधमाल में स्वामी जी की हत्या के विरोध में बंद रहे? ईसाइयों ने देशभर के 2500 विद्यालय हिन्दुओं के विरोध में बंद करने का साहस दिखाया जबकि अधिकांश विद्यालयों में हिन्दू विद्यार्थी ही पढ़ते हैं। यानि हिन्दू विद्यार्थियों का इस्तेमाल हिन्दुओं को ही आक्रामक सिद्ध करते हुए उन्हें बदनाम करने के लिए किया गया ।
यह स्थिति हिन्दुओं के असंगठन से पैदा होती है। हिन्दुओं के बड़े नेता प्रभावशाली उद्योगपति और समाज के अग्रणी शिक्षाविद् हिन्दू संवेदना पर चोट के समय खामोश रहते हैं। जब मैं वनवासी कल्याण आश्रम में प्रचारक था तो जिन उद्योगपतियों से 1500 रुपये की सहायता लेने के लिए मुझे 2-2 घंटे उनका कमरे के बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, वही उद्योगपति मदर टेरेसा के घर जाकर लाखों रूपये दे आते थे जबकि वह पैसा हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिए ही खर्च होता था।
अगर हिन्दुओं को भारत वर्ष में अपनी धर्म संस्कृति और सभ्यता बचाने का हक नहीं होगा तो क्या यह काम वह सऊदी अरब में कर सकेंगे? सैकड़ों सालों से भारत में जन्मे पंथों पर विदेशी आक्रमण हुए। इन पंथों में वैदिक सनातनी सिख, जैन, बौद्ध आदि शामिल हैं। परन्तु आज़ादी के बाद इन्हीं पंथों पर जिहादी और ईसाई मतांतरण के आक्रमण बढ़ते गए। क्या हमें अपना धर्म बचाने का हक नहीं? यह हक अपने समाज के भीतर व्याप्त पाखण्ड को दूर करते हुए तथा पंडों, पुजारियों और ऊंची जात का अहंकार रखने वाले लोगों से धर्म को वंचित तथा वनवासी समाज के लिए समान रूप से ले जाने पर ही मिल सकता है।
दुर्गा की पूजा करना और फिर कन्या भ्रूण हत्या करना, देवी से धन, विद्या, शक्ति मांगना फिर दहेज न लाने पर उसी देवी को जलाकर मार डालना तीर्थ और मंदिर गंदे रखना तथा हिन्दू द्वारा ही हिन्दुओं के विरोध में खड़ा होना आज के हिन्दु-समाज की समस्याएं हैं। अगर हम इकट्ठा हो गए तो न जिहाद जीत सकता है और न ही मतांतरण की शक्तियां -तरूण विजय

देश की सबसे बड़ी समस्यासमस्या की जड़ कहाँ है ?

देश की सबसे बड़ी समस्यासमस्या की जड़ कहाँ है ?
समस्या की जड़ तक पहुँचने के लिए कुछ पहलुओं पर गौर करना पड़ेगा और उनपर गौर करते हुए हमें अपने आप पता चल जायेगा कि समस्या की जड़ कहाँ छुपी हुयी है | बस अपने दिमाग के दरवाज़ों को थोडा खुला रखना पड़ेगा
देश की सबसे बड़ी समस्या:समस्या की जड़ कहाँ है ?
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दे
आज देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? ये एक सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है | कोई गरीबी, कोई आतंक , कोई भ्रष्टाचार ,कोई बेरोजगारी तो कोई आर्थिक समस्या को कहेगा जितने लोग होंगे सब का अपना -अपना नजरिया है मगर अगर ध्यान से देखा जाये कि देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है तभी उसका हल खोजा जा सकेगा | आज देश ना जाने कितनी ही समस्याओं से जूझ रहा है मगर मुद्दा एक ही सबसे ऊपर है कि जड़ कहाँ है समस्या की ?
इस समस्या की जड़ बहुत गहरी हैं | देश आज़ाद हुआ तो सोचा जैसा हम चाहेंगे देश को वैसा बनायेंगे --------एक खुशहाल देश . मगर क्या देश खुशहाल है ,क्या सब लोग खुशहाल हैं ?एक ही जवाब आएगा नही ----------ऐसा क्यूँ हुआ ? ऐसा इसलिए हुआ कि सबने सिर्फ अपना पेट भरने की सोची , किसी ने भी देश के हित को सर्वोपरि नही रखा | इस परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रखा गया | कोई भी नेता हो या कोई भी प्रधानमंत्री किसी ने भी इस समस्या को देखना तो दूर हाथ लगाना नही चाहा क्यूंकि सबको सिर्फ अपनी -अपनी कुर्सी प्यारी थी |
आज देश का हर नेता सिर्फ अपने लिए जी रहा है ----------दावे तो हर कोई करता है मगर क्या कभी किसी ने भी उन दावों को पूरा किया आज तक?जनता को कैसे बेवक़ूफ़ बनाया जा सकता है इसके रोज नए- नए उपाय खोजे जाते रहे | मगर देशवासी एकजुट होकर कैसे रहें इसके बारे में किसी ने नही सोचा बल्कि ये सोचा गया कि कैसे इनके प्यार मोहब्बत , दोस्ती और भाईचारे को ख़तम किया जाये ताकि हम अपनी रोटी सेंक सकें. कैसे नफरत की दीवार दिलों में खिंची जाये | कैसे इतना आतंक फैलाया जाये कि इंसान एक -दूसरे को देखकर भी डरने लगे | और ये सब करने में माहिर हमारे नेताओं ने देश को आज कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया | बेशक २१ वी सदी में जी रहे हैं मगर आज भी हम अपने स्वार्थों के कारण बहुत पीछे हैं वर्ना आज देश यूँ आतंक की समस्या से ना जूझ रहा होता और ना ही कोई कसाब या अफ़ज़ल गुरु देश का दामाद बन ऐश ना कर रहा होता और ना ही उस पर इतना करोड़ों रुपया खर्च हो रहा होता. क्या ये पैसा जनता का नही है? आज जनता दुखी है इस बात से कि एक आतंकवादी जिसने ना जाने कितने मासूमों की जान ली ,एक आतंकवादी जिसने देश की संसद पर हमला किया --------ऐसे- ऐसे आतंकवादी आज भी देश की शान बने हुए हैं उन्हें अख़बारों की सुर्ख़ियों में सबसे पहले जगह मिलती है मगर वो जिसने देश की खातिर जान कुर्बान की उसका नाम भी कहीं छोटे आर्टिकल में छाप दिया जाता है , और उसके परिवार पर क्या गुजरी ,वो किस हाल में जी रहे हैं ये सब जाने बिना सिर्फ श्रद्धांजलि देकर और २ मिनट का मौन रखकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है | आज जनता दुखी है अपने देश के कर्णधारों की ऐसी हरकतों से | आज ये सब ना होता अगर आतंकवादियों को सज़ा -ए-मौत मिल गयी होती | शायद जनता की दुखती रग पर कुछ तो मरहम लग गया होता | पूछो उस इंसान से जिसने इन हमलों में अपना बेटा खोया ,जिसने अपना पति खोया या जिसने अपना पिता खोया ---------क्या उनकी भरपाई कभी हो सकती है? मरता सिर्फ एक शख्स है मगर जिंदगियां ना जाने कितनी बर्बाद हो जाती हैं | कभी इस दर्द को समझना चाहा किसी ने भी .............नही क्यूंकि उनका अपना इनमें शामिल नही था अगर होता तो अब तक हवाओं का रुख ही बदल गया होता | क्या किसी मुआवजे से किसी के दुःख की भरपाई हो सकती है ?
अब देखा जाये तो अमेरिका में भी आतंकवादी हमला हुआ मगर उसने एक ही बार में ऐसा एक्शन लिया कि क्या कभी हमने दोबारा सुना कि ऐसा कुछ हुआ हो जबकि हमारे देश में आये दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं ............क्यूँ? एक ही कारण है ---------आतंकवादी जानते हैं कि यहाँ हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ेगा -------------उन्हें इस देश की कमजोरी पता है | आज यदि सद्दाम हुसैन की तरह आतंवादियों को फांसी पर लटकाया गया होता तो फिर दोबारा ऐसा करने की किसी में हिम्मत ही ना होती |
मगर जहाँ सब तरफ भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार व्याप्त हो तो सब कुछ सभव है | कभी देश को धर्म के नाम पर बांटते हैं तो कभी जाति के नाम पर | अब देखा जाये तो बाबरी मस्जिद कांड सिर्फ कुछ लोगो के दिल की उपज थी वरना इतना सब कुछ ना होता | लोगो को धर्म के नाम पर बाँट दिया और आपस में लडवा दिया और अब ६ दिसम्बर को उसे याद किया जाता है और पूरे ३६४ दिन भुला दिया जाता है ...............क्या समझा है इस देश के नेताओं ने कि जनता इतनी बेवक़ूफ़ है ? क्या वो नही समझती कि कुछ नेता सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए देश के लोगों के दिलों में नफरत के बीज बो रहे हैं-------------आज आम आदमी कैसे अपने लिए २ वक़्त की रोटी का जुगाड़ करता है , कैसे ज़िन्दगी जीता है ये सिर्फ वो ही समझ सकता है जो नेता नही है या ऊंचे रसूख वाला नही है | आम आदमी का दर्द आम आदमी ही समझ सकता है | क्या आम आदमी ऐसा चाहता है तो जवाब आएगा ---------नही | आम आदमी सिर्फ शांति से जीना चाहता है और दो वक़्त की रोटी सुकून से खाना चाहता है | मगर जब देश ऐसे हालातों से गुजरता है तब वो ही आम आदमी कसमसा जाता है अपनी बेबसी पर क्यूंकि उसी ने तो इन नेताओं को ये कुर्सी दिलवाई थी मगर बाद में वो खुद को ठगा हुया महसूस करता है ...........कोई सोचो ऐसे में वो क्या करे |
देश पहले भी बंटा था आज भी बँट रहा है कुछ लोगो के स्वार्थों की वजह से | इसी कारण दूसरे हम पर २०० वर्ष तक राज कर गए क्यूंकि कहने को ही हमारी एकता में ही अखंडता है जबकि एक तो हम कभी हुए ही नही जब हुए तो इतिहास बना. जैसे जब देश आज़ाद हुआ तो वो एकता की शक्ति पर ही हुआ सबके संगठित प्रयासों से ही हुआ | मगर आज क्या हो रहा है ..........आज फिर देश को बांटा जा रहा है .................आज फिर इसके टुकड़े किये जा रहे हैं कभी भाषा के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर..............क्या दुनिया इतना नही समझती कि एक आम भारतीय नागरिक ये अच्छे से जानता है कि वो सबसे पहले हिन्दुस्तानी है उसके बाद उसकी जाति,भाषा और धर्म आते हैं .............फिर भी उनके दिलों में ये नफरत के बीज बोये जा रहे हैं सिर्फ कुछ लोगों द्वारा अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए...............कैसे किसी की इतनी हिम्मत हो जाये अगर देश के नेता आज भी उतने ही उच्च आदर्शों और चरित्र वाले हो | देश के फिर टुकड़े करने को तैयार बैठे हैं कभी तेलंगाना के नाम पर तो कभी भाषा के नाम पर ..........आखिर कब तक सिर्फ अपनी स्वार्थों की बलिवेदी पर ये नेता देश को बलि चढाते रहेंगे...........कभी कहा जाता है कि एक प्रान्त का आदमी दूसरे प्रान्त में काम नही कर सकता जबकि देश में कहीं भी आने- जाने और काम करने की स्वतंत्रता है , कोई अगर हिंदी भाषा बोलता है तो उसे गलत करार दे दिया जाता है जबकि हर भारतीय सबसे पहले हिन्दुस्तानी है और हिंदी हमारी मातृभाषा , ऐसे में अगर वो हिंदी बोलता है तो कुछ लोगों द्वारा इतना बवाल क्यूँ खड़ा कर दिया जाता है जबकि सब जानते हैं कि ये क्यूँ हो रहा है सिर्फ अपनी सत्ता का प्रचार प्रसार करने के लिए | क्या इससे ये सिद्ध नही होता कि जो खुद को देश का कर्णधार कहते हैं वो ही देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं जो सिर्फ भाषा के नाम पर देश और उसके नागरिकों के संवैधानिक अधिकार पर डाका डाल रहे हैं | क्या सिर्फ एक जाति का इंसान ही एक जगह रह सकता है , क्या ये उसका अधिकार नही है कि वो कहीं भी रहे ..........मगर सिर्फ अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उन लोगों का सरे आम क़त्ल कर दिया जाता है ..............क्या ये देश की समस्या नही है? कभी कुछ स्वार्थी लोगों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए राज्यों के और छोटे- छोटे टुकड़े किये जा रहे हैं .........क्या इससे देश उन्नत होगा?क्या इससे देश की समस्या सुलझ जाएगी या कुछ लोग अपने स्वार्थों की वेदी पर देश को बाँट रहे हैं ये समझ नही आता | आज देश की समस्या इन मुद्दों से हटकर उस गंभीर मुद्दे की है जिसके कारण देश बर्बादी के गर्त में जा रहा है |
एक तरफ ये समस्याएं हैं तो दूसरी तरफ दिन प्रतिदिन महंगाई सुरसा के मुख की तरह बढती ही जा रही है ..........क्या ऐसे हालातों में जहाँ दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ इंसान के लिए मुश्किल हो रहा हो वहां ये खेल करवाने कहाँ तक उचित हैं? अपने देश की समस्याओं से तो सरकार निपट नही पा रही मगर राष्ट्रमंडल खेल इतने जरूरी कर दिए हैं कि उनकी वजह से गरीब और गरीब होता जा रहा है , वो बेचारा जिसकी रोटी में प्याज और दाल जैसी सबसे सस्ती चीजें होती थी वो ही चीजें आज वो खाने कि छोड़ो देख भी नही सकता ----------तो क्या ये उसकी रोटी पर डाका नही है , सिर्फ सारे संसार में अपना नाम रोशन करने के लिए गरीबों पर अन्याय नही है ? क्या राष्ट्रमंडल खेल इतने जरूरी हैं ? मगर नहीं सरकार हो या नेता कोई भी इस बारे में नही सोच रहा |
मस्या सभी एक दूसरे से जुडी हुई हैं. अब एक छोटा सा उदहारण देखिये ---------राहुल गाँधी ने संसद में कलावती की गरीबी का किस्सा उठाया , सबको बहुत ही अच्छा लगा कि कोई तो नेता ऐसा है जो इनके बारे में सोचता है मगर क्या उसका जीवन बदला..............क्या उसकी खोज खबर ली गयी ............ना जाने कितनी कलावातियाँ इनसे भी बदतर हालातों में जी रही हैं ...............कलावती को चुनाव लड़ने के लिए खड़ा नही होने दिया गया क्यूंकि एक आम इन्सान जो जनता में से आएगा वो उनका दुखदर्द अच्छे से समझ सकेगा ये बात हर कोई जानता है तो ऐसे में यदि कलावती चुनाव जीत जाती तो देश का नक्शा बदलने की कोशिश करती जो कुछ खास किस्म के नेताओं को रास ना आता इसलिए उस पर चुनाव से नाम वापस लेने के लिए दबाब डाला गया और आख़िरकार एक बार फिर झूठ जीत गया और सत्य को अपना मुंह छुपाना पड़ा .............तो ज़रा सोचिये हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या कौन हैं?
राहुल जी इस तरह जगह- जगह जाकर आम आदमी से मिलकर उनका दुःख दर्द जानकर आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं मगर क्या इसके बाद आपने कभी जानने की कोशिश की कि उस इंसान की आगे की ज़िन्दगी अब कैसी गुजर रही है , जो वादे आपने उनसे किये क्या वो सब पूरे हुए , नहीं ना , फिर ऐसे जाने या मिलने से क्या फायदा , ऐसे अपनी सहानुभूति दिखाने का तब तक कोई फायदा नही जब तक आप दोबारा बिना किसी को बताये वहां जाएँ और फिर उन लोगों के हालात देखें ---------पता लगाये कि आपके दिशानिर्देशों का पालन हुआ या नही तब जाकर थोडा सुधार आ पायेगा , तभी आज के नेता और अधिकारीगण डरेंगे और सही काम की ओर अग्रसर होंगे वरना जनता का जो हाल पहले था आपके जाने से वो ही हाल बाद में ही रहता है तो ऐसे जाने या ना जाने का कोई फायदा नही तब तक जब तक आपके वादों को अमली जामा ना पहनाया जा सके और यदि हर नेता इसी तरह का रास्ता अख्तियार करने लगे तो देश को सभी समस्याओं से मुक्ति मिल जाये मगर ऐसा होना संभव नही है क्यूंकि उससे जनता का पेट तो भर जाएगा मगर नेताओं का क्या होगा? ये एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है |
आम जनता तो पहले भी वैसे ही जी रही थी जैसे आज जी रही है .............वो पहले भी हालातों का शिकार होती रही है और आगे भी होती रहेगी ...........जब तक जनता खुद आगे नही बढती , अपने फैसले स्वयं नही लेती तब तक ना तो उनका खुद का जीवन सुधरेगा ना समाज के हालात सुधरेंगे और ना ही देश के हालात सुधरेंगे.जब तक हम अपने घरेलू हालातों को नही सुधारेंगे तब तक रामराज्य नही आ सकता , देश प्रगति के पथ पर नही चल सकता , फिर कोई जयचंद इस देश की बलि चढ़ा देगा |
आखिर कब तक हम देश और खुद को बर्बाद होने देंगे...........क्या हम में से फिर कोई झाँसी की रानी की तरह एक बार फिर साहस का परिचय ना देगा , क्या फिर भगत सिंह , आज़ाद जैसे वीर आगे नही आयेंगे . अब जनता को खुद आगे आना होगा ..........समस्या की जड़ को उखाड़ फेंकना होगा तभी देश अपनी सबसे बड़ी समस्या से छुटकारा पा सकेगा |
अब नेतृत्व की कमान जनता को खुद अपने हाथों में लेनी पड़ेगी ना कि देश के ऐसे कर्णधारों पर निर्भर करके खुद को अंधकार के गर्त में धकेलना होगा |
सबके संगठित प्रयासों से ही एक नव भारत का निर्माण करना होगा तभी सबसे बड़ी समस्या से जुडी छोटी-छोटी समस्याओं से छुटकारा मिल पायेगा |
कहाँ तक गिनवाया जाये ..................हर काले धंधे में , हर घोटाले में ,हर भ्रष्टाचार में कोई ना कोई उजले कपडे वाला ही शामिल मिलेगा | जिस दिन ऐसे नेताओं से छुटकारा मिलेगा वो दिन भारत के इतिहास का स्वर्णिम दिन होगा |
तो देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है ये तो अब तक सभी समझ चुके होंगे ...............?

राजनीतिज्ञों की जमात ने ....

राजनीतिज्ञों की जमात ने ऐसा पहले नहीं किया तो उसे अब कर लेना चाहिए. पिछले साल शुरू की गई मुहिम के निशाने पर केवल आस़िफ ज़रदारी ही नहीं थे. भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर यह अभियान तो पूरी राजनीतिक व्यवस्था को केंद्र में रखकर शुरू किया गया था. अब यह बात और है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के नाम पर 1947 से ही पाकिस्तान लगातार नर्क़ में तब्दील होता रहा है. ज़रदारी का नाम तो केवल एक बहाना था. मीडिया के एक धड़े के नेतृत्व में शुरू हुआ यह अभियान ज़रदारी पर ही रुकने वाला नहीं था, इसकी जद में नवाज़ शरी़फ भी आते. इसकी आख़िरी परिणति तो बांग्लादेशी मॉडल के अंतरिम सरकार के साथ होने वाली थी. एक समय वह था, जब बदलाव के लिए आर्मी हेडक्वार्टर में गुहार लगाई जाती थी. राजनीति में हाशिए पर पहुंच चुके नेताओं की जमात देश को बचाने की अर्ज़ी लिए सेना के शीर्ष अधिकारियों के सामने सिर के बल खड़ी होती थी. इस बार ये अर्ज़ियां सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश की गई थीं. पाकिस्तान अब तक चार बार मार्शल लॉ झेल चुका है और इसमें सेना के अधिकारियों के अलावा न्यायाधीशों एवं मीडिया के एक हिस्से की बड़ी भूमिका थी. जस्टिस रामदे की इस बात में पूरी सच्चाई नहीं है कि न्यायपालिका ने सैन्य शासकों को तात्कालिक राहत दी, जबकि स्थायी राहत संसद से मिली. किसी ने ठीक ही कहा है कि जिस संसद ने सैनिक तानाशाहों को वैधता दी, वह उन्हीं की बनाई हुई थी, लेकिन न्यायाधीशों के साथ ऐसा नहीं था. वे तो सैन्य तख्ता पलट के पहले से ही अपने पद पर बने हुए थे.
हमारे समाज का मध्य वर्ग शुचिता की कुछ ज़्यादा ही उम्मीद रखता है, लेकिन इससे कुछ भला नहीं होता, बल्कि सैन्य शासकों के लिए रास्ता तैयार होता है. फिर यह भी सच्चाई है कि राजनीतिज्ञ ही अपने सबसे बड़े दुश्मन होते हैं. लोकतंत्र के ख़िला़फ सभी साजिशें सैनिक मुख्यालय में ही नहीं गढ़ी जातीं. अपने पैरों पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारने में नेताओं का भी कोई जवाब नहीं होता.
पाकिस्तानी गणतंत्र के किसी भी हिस्से से शुचिता की उम्मीद करना ही बेमानी है. गणतंत्र का कोई भी ऐसा स्तंभ नहीं है, जिसका दामन दाग़दार न हो. ऐसा कोई नहीं है, जिसने पाप न किया हो और दूध का धुला होने का दावा कर सकता हो. हमारे अंदर नम्रता पैदा होनी चाहिए थी, लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. इसने व्यर्थ के अहंकार को जन्म दिया है, जो विविध रंगों में हमारी आंखों के सामने है. किस देश के संविधान में लिखा है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक चुनाव होने चाहिए? क्या अमेरिकी संविधान में इसकी चर्चा है? फिर भी हमारे न्यायाधीशों का मानना है कि संविधान से इस प्रावधान को हटाने से उसकी अस्मिता को आघात पहुंचा है. बात का बतंगड़ बनाने में मीडिया भला कैसे पीछे रह सकता है. वह इसे राजनीतिज्ञों के एक और कुकर्म के रूप में प्रचारित कर रहा है. राजनीति और राजनीतिज्ञों की भर्त्सना करना मीडियाप्रेमी मध्य वर्ग का मुख्य शगल रहा है. वह मीडिया के बनाए इस भ्रमजाल में उलझ कर रह गया है कि पाकिस्तान की दुर्दशा की एकमात्र वजह राजनीतिज्ञों की अक्षमता और उनका लोभ है. राजनीतिज्ञों को इस दुष्प्रचार का मुक़ाबला करने के लिए साहस जुटाना चाहिए था, लेकिन वे तो ख़ुद ही अपने रास्ते में कांटे बो रहे हैं. पीएमएल-एन लगातार दो साल तक न्यायिक तंत्र के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करती रही. उसके अभियान से लोगों के बीच यह धारणा बनने लगी कि चौधरी के नेतृत्व में न्यायाधीशों की दोबारा बहाली से पाकिस्तान की सारी समस्याएं ख़त्म हो जाएंगी. पीएमएल-एन को अब वास्तविकता का एहसास हो रहा है. वह इस कड़वी सच्चाई को महसूस कर रही है कि न्यायपालिका के आगे भी दुनिया है.
इक और दरिया का सामना/करना है मुनीर मुझको,
मैं एक दरिया के पार/उतरा तो मैंने देखा.
मीडिया द्वारा उजागर किया गया फर्ज़ी डिग्री घोटाला किसी एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि पूरे राजनीतिक तंत्र के लिए ही चुनौती बन चुका है. इसकी शुरुआत किसने की थी, उसी पीएमएल-एन ने. यह पार्टी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा नहीं था, बल्कि अकेले चौधरी आबिद शेर अली ने इसके पीछे अपनी पूरी ताक़त लगा दी. उनके इस दिशाहीन अभियान का ही नतीजा है कि यह मुद्दा आज हर दल के लिए गले की फांस बन गया है. लेकिन ऐसे कौन लोग हैं, जो इससे खुश हैं? ये वे लोग हैं, जिन्हें लगता है कि इस मुल्क से राजनीतिज्ञों को भगा दिया जाए तो उनके सपनों का पाकिस्तान बनते देर नहीं लगेगी. अब उन्हें यह कौन समझाए कि उनका यह सपना एक बालू की भीत भर है. राजनीतिज्ञों की जमात इस दुनिया में सबसे दुर्जन प्रजाति हो सकती है, लेकिन वे अकेले ही ऐसे नहीं हैं. हर पेशे के साथ कुछ ऐसे लोग जुड़े हैं, जो अपने पेशे के नाम पर कलंक हैं. सैनिक अधिकारियों पर कोई उंगली नहीं उठाता, वकीलों से कोई संत होने की उम्मीद नहीं करता, पत्रकारों से पेशेवर पवित्रता की उम्मीद कोई नहीं करता, फिर राजनीतिज्ञों के मामले में हमारी अपेक्षाएं इतनी बढ़ क्यों जाती हैं? टैक्स चोरी के काम में हम सब भी तो शामिल हैं. न्यूयार्क सोसायटी की लेडी फिओना हेम्सली का कहना है कि ईमानदारी से टैक्स अदा करने वाले लोग समाज के सबसे निचले तबके से संबंधित होते हैं. क्या उच्च वर्ग के लोग शराब निषेध का उल्लंघन नहीं करते? क्या सुसंस्कृत माने जाने वाले लोग भी अपनी पत्नियों के साथ धोखा नहीं करते? अपने पतियों को मूर्ख बनाने में पत्नियां भी पीछे नहीं रहती हैं. हम में से अधिकांश लोग सीधे रास्ते चलने की कोशिश इसलिए करते हैं, क्योंकि ग़लत रास्ता अख्तियार करने के मौक़े हमें नहीं मिलते. यदि ऐसे मौक़े मिलें तो कितने ऐसे लोग हैं, जो इस लोभ का संवरण करने में कामयाब होंगे? लोग बेवजह की पाबंदियों की काट ढूंढ ही लेते हैं. 1920 के दशक में जब अमेरिका में शराब पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो उसने नकली शराब के धंधे, तस्करी और हिंसा की एक नई संस्कृति को जन्म दे दिया. अल केपोने का आपराधिक साम्राज्य इसी पर टिका था. केनेडी ख़ानदान शराब की तस्करी से धनकुबेर बन गया. पाकिस्तान में इसके ख़िला़फ हमेशा से क़ानून मौजूद रहा है, लेकिन क्या यह कारगर साबित हुआ है? भुट्टो ने दबाव में मुल्क में शराबरोधी क़ानून लगा किया था. जनरल जिया ने बाद में इसमें कई बेतुके प्रावधान जोड़ दिए. लेकिन इससे शराब की चाहत रखने वाले लोगों के इरादे पर कोई असर नहीं पड़ा. उन्होंने अपना गला तर करने का रास्ता निकाल ही लिया. हम सब कांच के बने घरों में रहते हैं और हमें दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने से बचने की कोशिश करनी चाहिए.
मैंने मजनूं पे/लड़कपन में असद,
संग उठाया था/कि सर याद आया.
फर्ज़ी डिग्री घोटाले के इस जमाने में गालिब होते तो उन्होंने एक-दो शेर ज़रूर कह दिए होते. हम इस मुल्क में ढोंगियों और दोहरे चेहरे वाले लोगों के साथ जीने को मजबूर क्यों हैं? मुशर्ऱफ ने राजनीतिज्ञों पर तमाम तरह की बंदिशें लगाई थीं. चुनाव में भाग लेने के लिए उम्मीदवारों का स्नातक होना अनिवार्य कर दिया गया. जो इस पर खरे नहीं उतर पाए, उन्होंने इससे बचने का दूसरा तरीका निकाल लिया और फर्ज़ी डिग्रियां हासिल कर लीं. क्या ऐसा करना टैक्स चोरी करने से ज़्यादा संगीन अपराध है?
हमारे समाज का मध्य वर्ग शुचिता की कुछ ज़्यादा ही उम्मीद रखता है, लेकिन इससे कुछ भला नहीं होता, बल्कि सैन्य शासकों के लिए रास्ता तैयार होता है. फिर यह भी सच्चाई है कि राजनीतिज्ञ ही अपने सबसे बड़े दुश्मन होते हैं. लोकतंत्र के ख़िला़फ सभी साजिशें सैनिक मुख्यालय में ही नहीं गढ़ी जातीं. अपने पैरों पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारने में नेताओं का भी कोई जवाब नहीं होता. फर्ज़ी डिग्री घोटाला और मीडिया के ख़िला़फ पंजाब एसेंबली में पास किया गया प्रस्ताव उनकी इसी योग्यता का एक और नमूना है.

इन से देश को बचाओ

ये दुष्ट वर्ग विद्वेष के बीज बो रहे हैं (संदर्भ ‘अंबेडकर टुडे’ पत्रिका में ईश निंदा) : कुछ मंद बुद्धि (इसे दुष्ट बुद्धि या कुंठाग्रस्त कहना ज्यादा उचित होगा) लोग आगे बढते समाज को जबरन मध्ययुगीन बर्बरता और आदिम सोच की ओर खींच ले जाना चाहते हैं। यह काम कोई अनपढ़ जाहिल आदमी करता तो समझा जाता कि उसकी अल्पबुद्धि से यह गलती हो गयी। यह काम तो पढ़े-लिखे एक जाहिल ने किया है जिसके बौद्धिक दिवालियेपन का जायजा उसकी सोच से ही मिलता है। मेरा इशारा जौनपुर से प्रकाशित ‘अंबेडकर टुडे’ के स्वानामधन्य (?) संपादक डा. राजीव रत्न की ओर है जिन्होंने अपनी इस पत्रिका में देवताओं को ऐसी गालियां दी हैं जिन्हें एक सभ्य-सुंस्कृत व्यक्ति बोलना तो दूर लिखने का भी दुस्साहस नहीं करेगा क्योंकि उसकी शिक्षा, उसका परिवेश उसके हाथ बांध लेगा। शायद ऐसे संस्कार इन राजीव रत्न जी को नहीं मिले तभी इन्होंने पत्रिका के माध्यम से समाज में एक गंदगी फैलाने, वर्ग विद्वेष की आग भड़काने का कुकृत्य किया है जिसके लिए उन्हें जितना धिक्कारा जाये कम है।
उस पर तुर्रा यह कि जनाब ने माफी मांगते हुए यह फरमाया है कि यह लेख उनकी गैरजानकारी में छपा है। हे ईश्वर ऐसा धृतराष्ट्र बन बैठा है संपादक। आंख में पट्टी बांधे बैठे इस व्यक्ति और इसकी पत्रिका पर जितना जल्द नियंत्रण किया जाये उतना ही अच्छा वरना भविष्य में यह कुछ भी छाप कर देश और समाज को संकट में डाल सकता है। ऐसे दो-चार रत्न और देश में पैदा हो जायें तो फिर दुश्मनों की जरूरत नहीं। देश अपने आप विद्वेष की ज्वाला में जल जायेगा। ये राजीव रत्न बसपा के एक बड़े नेता के कुलदीपक हैं। ब्राह्मण, ईश्वर, उपनिषद, वेद, रामायण और हिंदुओं को चुनिंदा गाली देने वाले इस पागल संपादक ने यह शायद राजनीतिक फायदे के लिए किया हो लेकिन यह कर के उसने अपने आपको देशद्रोही, समाज और वर्गद्रोही की पांत में खड़ा कर दिया है।
हमारे कुछ भाइयों में यह गलत धारणा घर कर गयी है कि सवर्ण या ऊंची जाति का अर्थ है शोषक। हम मानते हैं कि अतीत में ऐसी कुछ गलतियां शासकों, जमींदारों या श्रीमंतों से हुई होंगी जिसके लिए समाज और ऊंच-नीच के भेदभाव के पोषक लोगों को शर्मिंदा होना चाहिए। समाज में सभी अपने भाई हैं, अपना समाज हैं, सबको साथ लेकर चलने की भावना ही श्रेयस्कर है। हर शुभ बुद्धि संपन्न व्यक्ति को इन विचारों का न सिर्फ पोषण अपितु संवर्धन करना चाहिए। आज अब समाज बदल रहा है, गांवों की छोड़ दें तो शहरों में ऊंच-नीच की खाईं पट रही है, जो एक सुखद संकेत है ऐसे में राजीव रत्न जैसे कुछ तत्व विष घोल कर समाज के सौहार्द्र के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देन चाहते हैं। ऐसे शरारती तत्वों को हर हाल में रोकना जरूरी है। आज जरूरत सामाजिक समरसता बढ़ाने की है, जो गलत हुआ है उसे परिष्कार करने की आवश्यकता है। पत्रिका में प्रकाशित यह सामग्री समाज का कैसा हित करती है? मैं नहीं समझता कि बसपा में अगर चंद शुभ बुद्धि संपन्न लोग भी हैं तो वे इस कार्य का किसी भी रूप में समर्थन करेंगे।
खुद मायावती जी भी शायद ऐसा नहीं चाहेंगी क्योंकि सवर्णों का एक बड़ा वर्ग उनकी पार्टी का समर्थक बन गया है केवल इसलिए कि उन्हें उनमें कहीं एक सही राष्ट्रीय विकल्प दिखता है। ऐसा विकल्प जो दबे-कुचले लोगों की भाषा बोलता तो है, खुद अपने लोगों के बीच संभावना की एक किरण के रूप में जिसे देखा जा रहा है। उनके अपने लोग इस तरह की शरारत करेंगे तो खतरा है कि सवर्ण हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग कहीं उनसे दूर न छिटक जाये। हिंदू धर्म इतना उदार है कि वह कभी किसी पर अत्याचार करने या किसी का दिल दुखाने की इजाजत नहीं देता। अगर धर्म के नाम पर पहले किसी हिंदू ने अपने दूसरे भाइयों पर जुल्म किया है तो वह धार्मिक नहीं ढोंगी रहा होगा और उसके उस कृत्य की जितनी निंदा की जाये कम है। ऐसे कृत्यों से ही हमारे अपने भाइयों का एक वर्ग अपने लिए अलग एक धर्म चुनने को मजबूर हुआ। जिस राम को दलित विरोधी मान कर गालियां दी जा रही हैं उसने वनवास के समय शबरी नाम भीलनी के जूठे बेर खाये, उसे गले लगाया। राजीव रत्न जी शबरी ब्राह्मण या क्षत्री नहीं थी वह आदिवासी थी आप उसे दलित कह सकते हैं। यह शब्द मैं प्रयोग नहीं करूंगा क्योंकि हमारे राष्ट्र में अगर कोई भाई दलित है तो यह राष्ट्र के लिए शर्म की बात है जो समाजवाद लाने का दंभ भरता है।
पता नहीं समाज में जो हमारे कुछ भाई अपने को दलित के श्रेणी में पाते हैं उनमें अतीत के कुंठा की ग्रंथियां इतनी गहरी क्यों बैठ गयी हैं कि उनको समाज का सार्थक बदलाव तक नहीं दिख रहा जहां भेदभाव की बेड़िया तोड़ समाज मुक्त हो रहा है। हो सके तो कुंठा से बाहर आइए, इस बदलाव और प्रगति से हाथ मिलाइए। दलित-दमित की शब्दावली छोड़ सीधे-सादे भारतीय बनिए और हर भारतीय को अपना भाई मानिए। हमारा धर्म किसी को मजबूर नहीं करता कि वह उस पर या उसके प्रतीकों या आस्था के केंद्र बिंदुओं पर आस्था रखे लेकिन एक बहुजन समाज (आपकी पार्टी का नारा नहीं हमारा अपना संपूर्ण भारतीय समाज। चलिए आज आपकी खुशी के लिए हम इसे इसी नाम से पुकारते हैं) आपको यह इजाजत या छूट भी नहीं देता कि आप उन्हें गाली दें जिन्हें हम पूजते हैं। आप नहीं पूजते नहीं मानते ,यह आपका सोच है, आपकी खुशी है इससे हमारा कोई लेना-देना नहीं। लेकिन अगर आप सामाजिक प्राणी हैं, उसके बीच में रहते हैं तो फिर उसके सामान्य शिष्टाचार को मानने के लिए आप बाध्य हैं। यह सवर्णों की दादागीरी नहीं सामाजिक समरसता को बनाये रखने के लिए एक देश के नागरिक होने के नाते आपका परम कर्तव्य है।
‘अंबेडकर टुडे’ पत्रिका में गंदगी करके आप न सिर्फ उस कर्तव्य से विमुख हुए हैं अपितु आपने महान आत्मा अंबेडकर का (जिन्हें हम आदर से बाबा साहब करते हैं) नाम बदनाम किया है। इसके लिए आपको समाज और पत्रकार बिरादरी से भी क्षमा मांगनी चाहिए। आपने पत्रकारिता धर्म को भी कलुषित किया है। राजीव रत्न जी कोई जाति इस तरह की टुच्चई (नंगई कहना बेहतर होगा क्योंकि आपने जैसे शब्द अपने लेख में प्रयोग किये हैं वह कोई नंगा ही कर सकता है) से आगे नहीं बढ़ती। नवयुवकों में इस तरह की कुंठा जगा कर आप उन्हें घृणा-द्वेष की ऐसी सुरंग में धकेल रहे हैं जहां सिर्फ और सिर्फ अंधेरा है। आपके इस लेख पर टिप्पणियां देते वक्त हमारे कुछ भाई उखड़ गये हैं, उनका आक्रोश स्वाभाविक है। सोचिए अगर आपको कोई गाली देगा तो आप उसकी फूल-माला से पूजा करेंगे? आपको भी वैसा ही आदर इन लोगों के शब्दों में मिल रहा है। हां विनय बिहारी सिंह और कमलेश पांडेय जी ने भी आपके भावों का जम कर पोस्टमार्टम किया है पर अपेक्षाकृत शालीन भाषा और सुलझे हुए ढंग में।
अंत में मैं प्रबुद्ध और सतर्क पत्रकार कुमार सौवीर का धन्यवाद किये बगैर रह नहीं सकता जिन्होंने इस कुकृत्य को उजागर कर राजीव रत्न जी को भड़ास के पाठकों के कठघरे में ला खड़ा किया है। राजीव रत्न जी पत्रकारिता एक पुनीत धर्म है। इसका काम समाज को दिशा देना और सत्यम् शिवम् सुंदरम् के आदर्श पर चलना होता है, तभी इसे गणतंत्र के चौथे पाये जैसा सम्मानित नाम मिला है। इसमें आ गये हैं तो आप जैसे लोगों को झेलने के लिए समाज विवश है पर कृपा करके गंदगी तो मत फैलाइए। संभव हो तो सामाजिक विद्वेष और घृणा की ग्रंथिया दूर कीजिए, अपने समाज को भी उदारमन का बनाइए क्योंकि ऐसा ही उस महान आत्मा ने चाहा था जिसके नाम का आपने सहारा लिया है। भारत सबका है, सभी यहां समान हैं यही भाव जगाइए। यह सब मैं एक भारतीय के नाते लिख रहा हूं किसी जाति विशेष का होने के नाते नहीं। समाज में हूं तो इसके अच्छे-बुरे पर बात करने का हक भी मेरा है। उसी नाते आपको और समाज के सुहृद बंधुओं को संबोधित कर रहा हूं। अब इस पर मुझे गालियां या तालियां कुछ भी मिले मुझे स्वीकार हैं।
समाज में एक अच्छा परिवर्तन आ रहा है तो उसमें भागीदार बनिए, खलनायक बन कर समरसता के इस उद्यान को उजाड़िए नहीं। वक्त की यही मांग है, वक्त की यही मांग है, वक्त के साथ चलिए। धारा के विपरीत बहने वाले भले ही चंद लमहों के लिए सराहे जाते हों लेकिन उनका एकदिन डूबना तय है। मुख्यधारा में आइए , समरसता का पाठ सीखिए और अपने सामाजिक दायित्वों को सजगता और शुचिता से पालन कीजिए। आपसे यही प्रार्थना और अपेक्षा है।
मिलते हैं यहाँ दुश्मन, हमसाज़ नहीं मिलते
जो दोस्त हैं उनके भी अंदाज़ नहीं मिलते

ये ज़ुल्मो-सितम कैसे मिट पाएँगे दुनिया से
बुजदिल हैं सभी चेहरे जांबाज़ नहीं मिलते

जख्मी है बदन अपना ये रूह भी जख्मी है
हाल अपना बताने को अल्फाज़ नहीं मिलते

कोई भी किसी से अब कुछ भी नहीं कहता है
इंसानों की बस्ती में हमराज़ नहीं मिलते

उलझन से, मुसीबत से, अब हुस्न के जलवों में
नखरे नहीं मिलते हैं, वो नाज़ नहीं मिलते.