राजनीतिज्ञों की जमात ने ऐसा पहले नहीं किया तो उसे अब कर लेना चाहिए. पिछले साल शुरू की गई मुहिम के निशाने पर केवल आस़िफ ज़रदारी ही नहीं थे. भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर यह अभियान तो पूरी राजनीतिक व्यवस्था को केंद्र में रखकर शुरू किया गया था. अब यह बात और है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के नाम पर 1947 से ही पाकिस्तान लगातार नर्क़ में तब्दील होता रहा है. ज़रदारी का नाम तो केवल एक बहाना था. मीडिया के एक धड़े के नेतृत्व में शुरू हुआ यह अभियान ज़रदारी पर ही रुकने वाला नहीं था, इसकी जद में नवाज़ शरी़फ भी आते. इसकी आख़िरी परिणति तो बांग्लादेशी मॉडल के अंतरिम सरकार के साथ होने वाली थी. एक समय वह था, जब बदलाव के लिए आर्मी हेडक्वार्टर में गुहार लगाई जाती थी. राजनीति में हाशिए पर पहुंच चुके नेताओं की जमात देश को बचाने की अर्ज़ी लिए सेना के शीर्ष अधिकारियों के सामने सिर के बल खड़ी होती थी. इस बार ये अर्ज़ियां सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश की गई थीं. पाकिस्तान अब तक चार बार मार्शल लॉ झेल चुका है और इसमें सेना के अधिकारियों के अलावा न्यायाधीशों एवं मीडिया के एक हिस्से की बड़ी भूमिका थी. जस्टिस रामदे की इस बात में पूरी सच्चाई नहीं है कि न्यायपालिका ने सैन्य शासकों को तात्कालिक राहत दी, जबकि स्थायी राहत संसद से मिली. किसी ने ठीक ही कहा है कि जिस संसद ने सैनिक तानाशाहों को वैधता दी, वह उन्हीं की बनाई हुई थी, लेकिन न्यायाधीशों के साथ ऐसा नहीं था. वे तो सैन्य तख्ता पलट के पहले से ही अपने पद पर बने हुए थे.
हमारे समाज का मध्य वर्ग शुचिता की कुछ ज़्यादा ही उम्मीद रखता है, लेकिन इससे कुछ भला नहीं होता, बल्कि सैन्य शासकों के लिए रास्ता तैयार होता है. फिर यह भी सच्चाई है कि राजनीतिज्ञ ही अपने सबसे बड़े दुश्मन होते हैं. लोकतंत्र के ख़िला़फ सभी साजिशें सैनिक मुख्यालय में ही नहीं गढ़ी जातीं. अपने पैरों पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारने में नेताओं का भी कोई जवाब नहीं होता.
पाकिस्तानी गणतंत्र के किसी भी हिस्से से शुचिता की उम्मीद करना ही बेमानी है. गणतंत्र का कोई भी ऐसा स्तंभ नहीं है, जिसका दामन दाग़दार न हो. ऐसा कोई नहीं है, जिसने पाप न किया हो और दूध का धुला होने का दावा कर सकता हो. हमारे अंदर नम्रता पैदा होनी चाहिए थी, लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. इसने व्यर्थ के अहंकार को जन्म दिया है, जो विविध रंगों में हमारी आंखों के सामने है. किस देश के संविधान में लिखा है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक चुनाव होने चाहिए? क्या अमेरिकी संविधान में इसकी चर्चा है? फिर भी हमारे न्यायाधीशों का मानना है कि संविधान से इस प्रावधान को हटाने से उसकी अस्मिता को आघात पहुंचा है. बात का बतंगड़ बनाने में मीडिया भला कैसे पीछे रह सकता है. वह इसे राजनीतिज्ञों के एक और कुकर्म के रूप में प्रचारित कर रहा है. राजनीति और राजनीतिज्ञों की भर्त्सना करना मीडियाप्रेमी मध्य वर्ग का मुख्य शगल रहा है. वह मीडिया के बनाए इस भ्रमजाल में उलझ कर रह गया है कि पाकिस्तान की दुर्दशा की एकमात्र वजह राजनीतिज्ञों की अक्षमता और उनका लोभ है. राजनीतिज्ञों को इस दुष्प्रचार का मुक़ाबला करने के लिए साहस जुटाना चाहिए था, लेकिन वे तो ख़ुद ही अपने रास्ते में कांटे बो रहे हैं. पीएमएल-एन लगातार दो साल तक न्यायिक तंत्र के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करती रही. उसके अभियान से लोगों के बीच यह धारणा बनने लगी कि चौधरी के नेतृत्व में न्यायाधीशों की दोबारा बहाली से पाकिस्तान की सारी समस्याएं ख़त्म हो जाएंगी. पीएमएल-एन को अब वास्तविकता का एहसास हो रहा है. वह इस कड़वी सच्चाई को महसूस कर रही है कि न्यायपालिका के आगे भी दुनिया है.
इक और दरिया का सामना/करना है मुनीर मुझको,
मैं एक दरिया के पार/उतरा तो मैंने देखा.
मीडिया द्वारा उजागर किया गया फर्ज़ी डिग्री घोटाला किसी एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि पूरे राजनीतिक तंत्र के लिए ही चुनौती बन चुका है. इसकी शुरुआत किसने की थी, उसी पीएमएल-एन ने. यह पार्टी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा नहीं था, बल्कि अकेले चौधरी आबिद शेर अली ने इसके पीछे अपनी पूरी ताक़त लगा दी. उनके इस दिशाहीन अभियान का ही नतीजा है कि यह मुद्दा आज हर दल के लिए गले की फांस बन गया है. लेकिन ऐसे कौन लोग हैं, जो इससे खुश हैं? ये वे लोग हैं, जिन्हें लगता है कि इस मुल्क से राजनीतिज्ञों को भगा दिया जाए तो उनके सपनों का पाकिस्तान बनते देर नहीं लगेगी. अब उन्हें यह कौन समझाए कि उनका यह सपना एक बालू की भीत भर है. राजनीतिज्ञों की जमात इस दुनिया में सबसे दुर्जन प्रजाति हो सकती है, लेकिन वे अकेले ही ऐसे नहीं हैं. हर पेशे के साथ कुछ ऐसे लोग जुड़े हैं, जो अपने पेशे के नाम पर कलंक हैं. सैनिक अधिकारियों पर कोई उंगली नहीं उठाता, वकीलों से कोई संत होने की उम्मीद नहीं करता, पत्रकारों से पेशेवर पवित्रता की उम्मीद कोई नहीं करता, फिर राजनीतिज्ञों के मामले में हमारी अपेक्षाएं इतनी बढ़ क्यों जाती हैं? टैक्स चोरी के काम में हम सब भी तो शामिल हैं. न्यूयार्क सोसायटी की लेडी फिओना हेम्सली का कहना है कि ईमानदारी से टैक्स अदा करने वाले लोग समाज के सबसे निचले तबके से संबंधित होते हैं. क्या उच्च वर्ग के लोग शराब निषेध का उल्लंघन नहीं करते? क्या सुसंस्कृत माने जाने वाले लोग भी अपनी पत्नियों के साथ धोखा नहीं करते? अपने पतियों को मूर्ख बनाने में पत्नियां भी पीछे नहीं रहती हैं. हम में से अधिकांश लोग सीधे रास्ते चलने की कोशिश इसलिए करते हैं, क्योंकि ग़लत रास्ता अख्तियार करने के मौक़े हमें नहीं मिलते. यदि ऐसे मौक़े मिलें तो कितने ऐसे लोग हैं, जो इस लोभ का संवरण करने में कामयाब होंगे? लोग बेवजह की पाबंदियों की काट ढूंढ ही लेते हैं. 1920 के दशक में जब अमेरिका में शराब पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो उसने नकली शराब के धंधे, तस्करी और हिंसा की एक नई संस्कृति को जन्म दे दिया. अल केपोने का आपराधिक साम्राज्य इसी पर टिका था. केनेडी ख़ानदान शराब की तस्करी से धनकुबेर बन गया. पाकिस्तान में इसके ख़िला़फ हमेशा से क़ानून मौजूद रहा है, लेकिन क्या यह कारगर साबित हुआ है? भुट्टो ने दबाव में मुल्क में शराबरोधी क़ानून लगा किया था. जनरल जिया ने बाद में इसमें कई बेतुके प्रावधान जोड़ दिए. लेकिन इससे शराब की चाहत रखने वाले लोगों के इरादे पर कोई असर नहीं पड़ा. उन्होंने अपना गला तर करने का रास्ता निकाल ही लिया. हम सब कांच के बने घरों में रहते हैं और हमें दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने से बचने की कोशिश करनी चाहिए.
मैंने मजनूं पे/लड़कपन में असद,
संग उठाया था/कि सर याद आया.
फर्ज़ी डिग्री घोटाले के इस जमाने में गालिब होते तो उन्होंने एक-दो शेर ज़रूर कह दिए होते. हम इस मुल्क में ढोंगियों और दोहरे चेहरे वाले लोगों के साथ जीने को मजबूर क्यों हैं? मुशर्ऱफ ने राजनीतिज्ञों पर तमाम तरह की बंदिशें लगाई थीं. चुनाव में भाग लेने के लिए उम्मीदवारों का स्नातक होना अनिवार्य कर दिया गया. जो इस पर खरे नहीं उतर पाए, उन्होंने इससे बचने का दूसरा तरीका निकाल लिया और फर्ज़ी डिग्रियां हासिल कर लीं. क्या ऐसा करना टैक्स चोरी करने से ज़्यादा संगीन अपराध है?
हमारे समाज का मध्य वर्ग शुचिता की कुछ ज़्यादा ही उम्मीद रखता है, लेकिन इससे कुछ भला नहीं होता, बल्कि सैन्य शासकों के लिए रास्ता तैयार होता है. फिर यह भी सच्चाई है कि राजनीतिज्ञ ही अपने सबसे बड़े दुश्मन होते हैं. लोकतंत्र के ख़िला़फ सभी साजिशें सैनिक मुख्यालय में ही नहीं गढ़ी जातीं. अपने पैरों पर ख़ुद कुल्हाड़ी मारने में नेताओं का भी कोई जवाब नहीं होता. फर्ज़ी डिग्री घोटाला और मीडिया के ख़िला़फ पंजाब एसेंबली में पास किया गया प्रस्ताव उनकी इसी योग्यता का एक और नमूना है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें